अब तो बादल भी धोखा देते हैं

याद है बचपन के वो दिन,
देख मेघों को, छत पर चढ़ जाते,
काले मेघों के श्वेत आशीष में,
जी भर का हम खूब नहाते ।

निराकार हो, नवाकार बनाते,
बाल मन हर्षित कर जाते,
कभी उड़ते मैदानों पर निरंकुश,
कभी मंदिर का छत्र बन जाते ।

गर्मी की झुलसाती धूप के बाद,
आते थे करते शंखनाद,
बादल थे ख़ुशी के सन्देश,
थी मानव को, देवेन्द्र की भेंट ।

अब तो बादल भी धोखा देते हैं,
गरज-गरज कर आस बांधते,
घुमड़-घुमड़ कर प्यास बढ़ाते,
बिन बरसे ही चले जाते हैं ।।

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