वो साइड अपर पे बैठी थी
वो साइड अपर पे बैठी थी ।
काँधे पर उसके, लटकती चोटी थी,
गालों के रंग से मिलती, गुलाबी कुर्ती वो पहने थी,
वो साइड अपर पे बैठी थी ।
बातें करती बड़ा लजाती, हाथों से चेहरे को छुपाती,
और बातों पे सहेली की, ठहकती थी,
वो साइड अपर पे बैठी थी ।
गाडी भले ही रुक जाए, पर न बातें उसकी रुकतीं थी,
कहानी अनेक, किस्से हज़ारों, वो रात बड़ी ही छोटी थी,
वो साइड अपर पे बैठी थी ।
टिकट, मोबाइल, पैसा, रसीदें, सब कुछ रखा था संग में,
एक छोटे से पर्स में, सारी दुनिया समेटे थी,
वो साइड अपर पे बैठी थी ।
उसकी आँखें बड़ी ही नटखट, सब कुछ ताके सरपट-सरपट,
उन चंचल आँखों की एक झलक, मुझपर भी फेंकी थी,
वो साइड अपर पे बैठी थी ।
गुज़री नागपुर में वो मेरे पास से, महक उठी थी हवा उसकी सांस से,
करने को उससे दो बातें तब, मैंने हिम्मत समेटी थी,
वो साइड अपर पे बैठी थी ।
दुर्ग में सोचा बात करूं, एक सिलसिले की शुरुआत करूं,
पर उसी स्टेशन पे उठा ली, उसने अटैची थी,
वो साइड अपर पे बैठी थी |